मैं कौन हूँ? (16 – 18)
रमण महर्षि के उपदेश
ॐ नमो भगवते श्रीरमणाय
मैं कौन हूँ?
16. स्वरूप का स्वभाव क्या है?
यथार्थ में जो अस्तित्त्वमान् है, वह केवल आत्मस्वरूप है। जगत्, जीव और ईश्वर इसमें मोती में चाँदी के आभास की भाँति कल्पित प्रतीति हैं। ये तीनों एक ही समय प्रकट होकर, एक ही समय लुप्त होते हैं। जिस स्थान पर ‘मैं’ का किंचित मात्र विचार नहीं होता, वहाँ ‘स्वरूप’ है, वही मौन है, ‘स्वरूप’ स्वयमेव जगत् है, ‘स्वरूप’ स्वयमेव ‘मैं है, ‘स्वरूप’ स्वयमेव ईश्वर है, सब कुछ ‘शिव-स्वरूप’ है।
17. क्या सब कुछ ईश्वर के कार्य नहीं हैं?
बिना किसी इच्छा, संकल्प या प्रयास के आदित्य उदित होता है; और उसकी उपस्थिति मात्र से सूर्यकान्त मणि पत्थर अग्नि उगलता है, कमल खिलता है, पानी वाष्पित होता है, लोग विभिन्न कार्यों में प्रवृत्त होते हैं तथा उन्हें करने के बाद आराम करते हैं। जिस प्रकार चुम्बक के समक्ष सूई हिलती है, उसी प्रकार संकल्प विहीन ईश्वर की सन्निधि मात्र से होनेवाली तीन क्रियाओं” अथवा पंच कृत्यों से नियंत्रित सकल जीव अपने-अपने कर्मानुसार कार्य कर विश्राम करते हैं। ईश्वर संकल्प रहित है, वह किसी कर्म से बँधा नहीं है। यह ठीक उसी प्रकार है, जैसे लौकिक क्रियाएँ सूर्य को प्रभावित नहीं करतीं या अन्य चार भूत के गुण-अवगुण व्यापक आकाश पर प्रभाव नहीं डाल पाते।
18. भक्तों में श्रेष्ठ कौन है?
‘स्वरूप’ के रूप में उपस्थित ईश्वर को, जो स्वयं को समर्पित करे, वही सबसे उत्तम भक्त है। ईश्वर को समर्पित करने का अर्थ है निरन्तर आत्मा में बने रहना, और आत्मा के अतिरिक्त किसी अन्य विचारों को उदित न होने देना।
ईश्वर के ऊपर जो भी भार फेंकें जाते हैं, वह उनको वहन करता है। जब परमेश्वर की शक्ति, सकल चीज़ों को संचालित करती है, तो अपने आपको उसको बिना समर्पित किए, क्यों हम निरन्तर विचार द्वारा चिन्ता करते हैं कि क्या करना और किस प्रकार करना चाहिए? हम जानते हैं कि रेलगाड़ी सभी बोझ ले जाती है, इसलिए उसके भीतर प्रवेश के उपरान्त, हमें अपना छोटा भार रेलगाड़ी में रखकर आराम अनुभव करने की जगह, कष्ट सहते हुए अपना सामान सिर पर क्यों लादे रहना चाहिए?