
मैं कौन हूँ? (13 – 15)
रमण महर्षि के उपदेश
ॐ नमो भगवते श्रीरमणाय
मैं कौन हूँ?
13. समुद्र की लहरों की भाँति संचित विषय-वासनाओं के असीमित विचार प्रकट होते हैं, वे सब कब नष्ट होंगे?
स्वरूप-ध्यान तीव्र होते ही, वे विचार क्रमशः नष्ट हो जाएँगे।
14. क्या आदिकाल से चली आ रही विषय-वासनाओं का विनष्ट होना तथा स्वरूप मात्र बनकर रहना संभव है?
‘यह संभव है या नहीं?’ इस संदेह को स्थान दिए बिना, निरन्तर स्वरूप-ध्यान में सुदृढ़ रहना चाहिए। कोई चाहे कितना ही बड़ा पापी क्यों न हो, ‘मैं तो पापी हूँ, मेरा उद्धार कैसे हो सकता है?’ यों दीन हो विलाप एवं चिंता न करते हुए, ‘मैं पापी हूँ’ के विचार को पूरी तरह से त्यागकर, यदि वह सतत स्वरूप-ध्यान में संलग्न रहे, तो निश्चित ही सफल होगा। | शुभ मन और अशुभ मन, ऐसे दो मन नहीं हैं। मन एक ही है। वासनाएँ ही, शुभ एवं अशुभ, दो तरह की होती हैं। मन जब शुभ वासनाओं के वशीभूत हो, तब उसे शुभ मन कहते हैं और जब अशुभ वासनाओं के वशीभूत रहे, तब वह अशुभ मन कहलाता है।
प्रपंच विषयों में मन नहीं लगाना चाहिए तथा उसे दूसरों के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। दूसरे लोग कितने भी बुरे क्यों न हों, उनसे द्वेष नहीं करना चाहिए। राग-द्वेष, दोनों ही त्याज्य हैं। दूसरों को जो कुछ दिया जाता है, (वह सब) अपने आपको ही दिया जाता है। इस सत्य को जान लेने के बाद, भला कौन दूसरों को नहीं देना चाहेगा? अहंता के उदित होने से सबकुछ उदित होगा, अहंता के विलीन होने से सबकुछ विलीन हो जाएगा। हम जितना अधिक विनम्र हो आचरण करेंगे, उतना ही अधिक हमारा हित होगा। मन को निग्रहित करके, कोई कहीं भी रह सकता है।
15. आत्म-अन्वेषण का अभ्यास कब तक करना चाहिए?
जब तक मन में विषय-वासनाएँ रहती हैं, तब तक मैं कौन हूँ? का अन्वेषण आवश्यक है। ज्यों-ज्यों विचार उठते हैं, त्यों-त्यों (उनके उत्पत्ति स्थान में ही) आत्म-अन्वेषण द्वारा उन सबका नाश करना चाहिए। आत्म-स्वरूप की प्राप्ति तक यदि कोई निरन्तर स्वरूप-स्मरण में रहे, तो यह साधना ही पर्याप्त है। जब तक दुर्ग के भीतर शत्रु हैं, तब तक वे उससे बाहर आते रहेंगे। ज्यों-ज्यों वे बाहर आएँ तथा उन्हें मारते रहें, तो दुर्ग जीत लिया जाएगा।