मैं कौन हूँ? (1 – 8)
रमण महर्षि के उपदेश
ॐ नमो भगवते श्रीरमणाय
मैं कौन हूँ?
सभी जीव दु:ख रहित शाश्वत सुख की इच्छा रखते हैं तथा हर किसी में यह देखा गया है कि उसे स्वयं के प्रति सर्वाधिक प्रेम होता है। सुख ही प्रेम का कारण है, वह सुख जो स्वयं का स्वभाव है और जिसकी अनुभूति मन रहित, गहन निद्रा की अवस्था में होती है; इसकी प्राप्ति के लिए व्यक्ति को अपने स्वयं को जानना चाहिए। उसके लिए मैं कौन हूँ?’ का ज्ञान विचार ही प्रमुख साधन है।
- मैं कौन हूँ?
सप्त धातुओं से बना स्थूल शरीर ‘मैं नहीं हूँ। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध इन पाँचों विषयों को पृथक ग्रहण करनेवाले (क्रमशः) कर्ण, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका – ये पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ भी ‘मैं’ नहीं हूँ। वाणी, गमन, ग्रहण, मल-विसर्जन, आनन्द – ये पंचविध क्रियाएँ करनेवाली (क्रमश:) वाक्, पाद, पाणि, पायुः और उपस्थ – ये पाँचों कर्मेन्द्रियाँ भी ‘मैं’ नहीं हैं। श्वासादि पंचकर्म करनेवाले प्राणादि वायु पंचक भी ‘मैं’ नहीं हैं। संकल्प करनेवाला मन भी ‘मैं’ नहीं हैं। सर्व विषयों एवं सर्व कर्मों से रहित तथा केवल विषय-वासनाओं से युक्त अज्ञान भी ‘मैं’ नहीं हैं।
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रस, रक्त, मांस, मज्जा, मेद, अस्थि और शुक्र।
- यदि ‘मैं’ इनमें से कोई नहीं हैं, तो मैं कौन हूँ?’
उपरोक्त सभी को ‘नेति-नेति’ से निरस्त करने के बाद, जो चैतन्य बचे – ‘मैं’ वही हैं।
- उस चैतन्य का स्वरूप क्या है?
चैतन्य का स्वरूप सच्चिदानन्द है।
- स्वरूप का दर्शन कब होगा?
जब दृश्य जगत् का लोप हो, तो स्वरूप का बोध होता है, जो कि द्रष्टा है।
- क्या दृश्य जगत् के बोध (प्रतिभास) के साथ स्वरूप-दर्शन नहीं
हो सकता ? नहीं।
- क्यों?
द्रष्टा और दृश्य, रज्जु और सर्प जैसे हैं। जैसे कि रस्सी का ज्ञान जो अधिष्ठान (आधार) है, तब तक उदित नहीं होगा जब तक कि काल्पनिक सर्प का मिथ्या ज्ञान नहीं चला जाता, उसी प्रकार स्वरूपदर्शन जो अधिष्ठान (आधार) है, की प्राप्ति तब तक नहीं हो सकती जब तक कि कल्पित जगत्-दृष्टि का विनाश नहीं हो जाता।
- दृश्य जगत्-बोध का नाश कब होगा?
मन, जो सभी ज्ञान के अनुभवों एवं समस्त कर्मों का कारण है, के लीन होने पर जगत् का लोप हो जाएगा।
- मन का रूप क्या है?
जिसे ‘मन’ कहते हैं, वह आत्मा में निवास करनेवाली आश्चर्यजनक शक्ति है। इसी से सभी विचार उदित होते हैं। विचारों के अतिरिक्त, मन जैसी कोई वस्तु है ही नहीं। इसलिए विचार, मन का रूप है। विचारों के अतिरिक्त जगत् का कोई अलग अस्तित्त्व नहीं है। (गहन) निद्रा में जब कोई विचार नहीं होता, तब कोई जगत् भी नहीं होता है। जाग्रत एवं स्वप्न की अवस्थाओं में जब विचार होते हैं, तब जगत् भी होता है। जैसे मकड़ी स्वयं जाल बुनती तथा पुन: उसे वापिस खींच लेती है; उसी प्रकार मन जगत् को प्रतिबिंबित करता तथा पुनः स्वयं में स्थिर कर लेता है। मन जब ‘स्वरूप’ के बाहर आता है, तब जगत् प्रकट होता है। इसलिए जब जगत् प्रकट होता है, तब ‘स्वरूप प्रकाशित नहीं होता और जब ‘स्वरूप’ प्रकट (प्रकाशित) होता है, तब जगत् प्रकट नहीं होता। जब कोई मन के रूप की खोज करता है, तो मन विलुप्त हो जाता है और आत्मा ही रह जाता है। जिसे ‘स्वरूप कहते हैं, वह आत्मा ही है। मन का अस्तित्त्व सदैव किसी स्थूल पर निरन्तर अवलंबित है, वह अकेला नहीं रह सकता। यह मन ही है, जिसे सूक्ष्म शरीर या जीव कहते हैं।